बद्रीनाथ यात्रा संस्मरण

 हिन्दू धर्मों में चार धाम यात्रा का अपना एक विशेष महत्व है। इनमें द्वारका, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम और बद्रीनाथ धाम शामिल हैं। इस अलौकिक धाम की यात्रा देश का हर हिंदू करना चाहता है। भगवान बद्रीनाथ का मंदिर हिमालय पर्वत की श्रेणी में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है। करीब 3133 मीटर की ऊँचाई पर बने इस मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इसके बारे में कई अलौकिक कथाएं भी प्रचलित हैं। नर और नारायण पहाड़ों के बीच कस्तूरी शैली में बना यह मंदिर। मुख्य रूप से भगवान विष्णु का मंदिर है। यहाँ नर और नारायण की पूजा की जाती है। यहाँ भगवान विग्रह रूप में विराजमान है।

मेरे पिता जी की वर्षों से ईच्छा थी की बद्रीनाथ जा कर पितरों के लिए पिंडदान करना है। समय और साधन के अभाव में वे इसे टालते रहे। इस बार जब उन्होंने अपनी ईच्छा जहीर की तो हमारे परिवार में सबका एक स्वर से उसे पूरी करने की सहमति बन गई। 

इसे कार्यान्वित करने के लिए काल अवधि सितंबर के आखिरी और अक्टूबर के पहले सप्ताह को चुना गया जो की इस वर्ष के पितृपक्ष का समय था। यात्रा का पहला पड़ाव मेरे छोटे भाई के घर दिल्ली को चुना गया। मेरे पिताजी, माँ और गांव की एक दादी 27 सितंबर को नियत कार्यक्रम के तहत मेरे भाई शिशु के घर पहुंच गए। मैं मुंबई से दिल्ली 29 सितंबर को सुबह की फ्लाईट से पहुंचा और वहां से दोपहर को आगे की यात्रा कार में शुरू की और हमारा लक्ष्य कम से कम हरिद्वार तक पहुंच शाम की गंगा आरती में शामिल होने का था। 

हरिद्वार पहुंचने में थोड़ी देर होने की वजह से हम शाम की आरती के आखरी क्षणों में ही शामिल हो सके। यात्रा में हर पड़ाव पर विश्राम स्थल की जिम्मेदारी मेरे अनुज शिशु ने अपने कंधो पर ले ली थी और हरिहर आश्रम कनखल में ठहरने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ। 

हरिद्वार में गंगा आरती का नजारा

यूं तो हरिद्वार में बहुत सारे मठ, मंदिर, आश्रम आदि स्थित है परंतु 13 अखाड़ों के आश्रम को ही आश्रम माना जाता है। हरिद्वार के सभी आश्रम हरिद्वार के आसपास 10 किलोमीटर के अंदर के क्षेत्र में ही स्थित है, जिनमें से ज्यादातर आश्रम गंगा के तट पर ही बसे हैं। पंच दशानन जूना अखाड़ा का आश्रम हरिहर आश्रम हरिद्वार में गंगा के किनारे स्थित है। यह हरिद्वार के सबसे पुराने आश्रमों में से एक है और हरिद्वार से लगभग 2 किमी की दूरी पर स्थित है कनखल में है।इस आश्रम में तीन बड़े दर्शनीय स्थान है। पहला मृत्युंजय महादेव का मंदिर, दूसरा पारदेश्वर मंदिर और तीसरा रुद्राक्ष का वृक्ष।यहां का पारद शिवलिंग लगभग 150 किलो वजन का है जिसका दर्शन करने के लिए दूर दूर से लोग आते हैं।यहां का रुद्राक्ष का वृक्ष भी बहुत ही चमत्कारिक जाता है। यह भी मुख्य आकर्षण का केंद्र है। रुद्राक्ष ऐतिहासिक और विशाल पेड़ है, जिसे सिद्धि दाता वृक्ष कहा जाता है। श्री स्वामी अवधेशानंद गिरि जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर हैं, जिन्हे अखाड़े का प्रथम पुरुष मान जाता है, अक्सर इसी आश्रम में रहते हैं। 





इस आश्रम में गुरुजी का दर्शन करने का सौभाग्य हमें नहीं मिल सका क्योंकि वो किसी कार्य वश बाहर गए हुए थे। आश्रम में स्वाभाविक अध्यात्मिक अनुभव की अनुभूति हो रही थी। अगले सुबह हम सब हरिद्वार में गंगा किनारे पहुंच गए। कहते हैं कि हरीद्वार में गंगाजी में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं, हम सब ने इस अवसर का लाभ उठाया और आगे की यात्रा पर निकल पड़े। 

हम सब का इरादा रुद्रप्रयाग पहुंच कर रात्रि विश्राम करने का था और हम अलकनंदा के किनारे होटल ढूंढ रहे थे। हरिद्वार से आगे ऋषिकेश पहुंचने के दो रास्ते हैं एक रास्ता राजाजी नेशनल पार्क हो कर गुजरता है। हमने यही रास्ता चुना और यह एक अच्छा निर्णय साबित हुआ। मुख्य रास्ते में काफी जाम था, और ये रास्ता जंगलों के बीच बेहद ही खूबसूरत था। ऋषिकेश तक हम बिना किसी परेशानी के पहुंच गए। जैसे ही हम ऋषिकेश के आगे बढ़े, बारिश के दिनों में भूस्खलन की वजह से हुए खराब रास्तों की वजह से हमारी गति मंथर हो गई। शाम होते होते हम देवप्रयाग के नजदीक पहुंच गए और हमने यही पर रात्रि विश्राम करने का निश्चय किया। यहां पीडब्लूडी के विश्राम गृह जो की देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा के संगम पर ही स्थित है, हमारे ठहरने का प्रबंध हुआ। 




सुबह सुबह यहां से उत्तराखंड की खूबसूरती देखने लायक थी जहां से आंखे हटाने का मन ही नही कर रहा था। ईच्छा हो रही थी की यहां कुछ और वक्त बिताया जाए पर यात्रा का अगला पड़ाव बद्रीनाथ अभी काम से काम 10 घंटे की यात्रा थी। जाम की वजह से पिछले दिन रुद्रप्रयाग न पहुंच पाना आज यात्रा को कम से कम ढाई घंटे से लंबी कर रहा था। 

सुबह की चाय के बाद हमने आगे का सफर शुरु किया और करीब 4 घंटे की यात्रा हिमालय की खूबसूरत वादियों में करते हुए दोपहर के खाने के लिए कर्णप्रयाग में रुकने का निश्चय किया। कर्णप्रयाग में अलकनंदा और पिंडर नदी का संगम है।


उत्तराखंड जो की देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है वो अनेक तरह की तीर्थों के लिए प्रसिद्ध है। इनमें से एक पंचप्रयाग के लिए भी जाना जाता है। पंचप्रायाग देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग को मिला कर बना है।
हरिद्वार से बद्रीनाथ की यात्रा पंचप्रयाग से हो कर ही गुजरती है।

कर्णप्रयाग से निकले अभी थोड़ी देर ही हुआ और हम जाम न होने की वजह से खुश थे, वो खुशी अचानक से काफुर हो गई जब कम से कम चार पांच किलोमीटर की लंबी जाम में अटक गए। इस जाम ने हमारे सारे प्लान का बंटाधार कर दियाऔर शाम ढलते ढलते हम सिर्फ जोशीमठ तक ही पहुंच पाए। ईश्वर की शायद यही इच्छा थी कि हम जोशीमठ के पास ही रात्रि विश्राम करे। थोड़ी जद्दोजहद के बाद हम सब औली के सतोपंथ रिसोर्ट में रुक गए। सतोपन्थ रिसोर्ट औली से 3 किलोमीटर पहले स्थित है और काफी लक्जरियस है। उसके कमरे काफी आरामदायक और इसके स्टाफ काफी अच्छे हैं। कमरे की बालकनी से बाहर का दृश्य अति मनोहारी है।







सुबह सुबह औली की खूबसूरत छटाएं देखकर सारी थकान मिट गई। हमने इसी रिजॉर्ट में रात्रि विश्राम का निच्छित कर कमरे आज के लिए भी आरक्षित कर हम अपने मंजिल बद्रीनाथ के लिए निकल पड़े। यहां से रास्ता थोड़ा और सकरा हो गया पर जाम नहीं था। आज रास्ते पर  गाड़ियों की भीड़ थोड़ी कम दिख रही थी। लगभग दिन के 11 बजे हम बद्रीनाथ पहुंच गए। यहां मंदिर के अगल बगल क्षेत्रों के नवीकरण का कार्य चल रहे होने की वजह से काफी अव्यवस्था थी। ट्रैफिक जहां तहां रोका गया था। ख़ैर एक जगह पर कार पार्क कर हम धीरे धीरे मंदिर प्रांगण की तरफ बढ़ चले। आज यहां मौसम सुबह की हल्की बारिश की वजह से थोड़ा ठंडा हो गया था। मेरे भाई शिशु के मित्र की वजह से मंदिर में प्रवेश और दर्शन में काफी आसानी हो गई और थोड़ी भीड़ के बावजूद लगभग 1 घंटे के अंदर श्री बद्रीनारायण का दर्शन हो गया। कहते हैं कि बद्रीनाथ में श्री विष्णु साक्षात निवास करते हैं और यहां सिर्फ दर्शन मात्र से मनुष्य जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। 

भगवान के दर्शन के बाद हम अलकनंदा के किनारे गरम पानी के कुंड के समीप पहुंचे जहां हमारी मुलाकात पंडा जी से हुई। यहां दो तीन बातों की चर्चा महत्वपूर्ण है। पहली चर्चा नारद कुंड की जहां धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, देवर्षि नारद ने 6000 वर्षों तक कठोर तप किया था. साथ ही भगवान विष्णु ने भी काफी लंबे समय तक यहां निवास किया था. इस कुंड का बद्रीनाथ धाम से भी गहरा नाता है. क्योंकि इसी कुंड से भगवान विष्णु की प्रतिमा को निकालकर आदि गुरु शंकराचार्य ने मंदिर में स्थापित किया था।

दूसरी तप्त कुंड की जिसके रहस्य की गुत्थी कई वैज्ञानिक भी सुलझा नहीं पाए हैं। माना जाता है कि भगवान बद्रीनाथ ने यहाँ तप किया था। वही पवित्र स्थल आज तप्त कुण्ड के नाम से विश्व विख्यात है। मान्यता है कि उनके तप के रूप में ही आज भी उस कुंड में गर्म पानी रहता है।

मान्यता ये भी है कि इस तप्त कुण्ड में साक्षात सूर्य देव विराजते हैं। वहाँ के पुरोहित बताते हैं कि भगवान सूर्य देव को भक्षा-भक्षी की हत्या का पाप लगा था। तब भगवान नारायण के कहने पर  सूर्य देव बद्रीनाथ आये और तप किया। तब से सुर्य देव को भगवान ने जल रूप में विचलित किया। जिसमें स्नान कर लोग अपनी शरीर सम्बंधी सभी समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। और भगवान के दर्शन कर पापों से मुक्ति पाते हैं।

तीसरी चर्चा यहां के पंडो की है जिसे देख बहुत ही ज्यादा कौतुक हुआ। पंडा जी ने सिर्फ हमारे गांव और परगना के नाम के आधार पर उनकी पुरानी डायरी से हमारे गांव से सबसे पहले 1945 में आए  मेरे परबाबा का नाम और उनके बाद आए अन्य अलग अलग लोगो के नाम लिखे थे। इस बात से संतुष्ट हो कर की यही हमारे पूर्वजों के पंडा हैं, हमने उनसे पूर्वजों के लिए पिंडदान करवाने की विनती की। लगभग एक डेढ़ घंटे की पूजा के बाद पिंडदान सम्पूर्ण हुआ। 

पिंडदान के पश्चात हम मुख्य मंदिर के सामने बने आंगन में बैठ कर थोड़ा विश्राम करते हुए बद्रीनाथ के मनोरम दृश्य का आनंद लिया। यह वास्तव में अलौकिक जगह है।






दिन अब ढलान की ओर अग्रसर हो चला था। खाना खाते खाते शाम के पांच बज गए। खाना खा कर हम औली में होटल के लिए निकल पड़े। बद्रीनाथ से विष्णुप्रयाग तक तो निर्विघ्न पहुंच गए, परंतु विष्णुप्रयाग में हमे भारी बारिश और जाम का सामना करना पड़ा। 20 किलोमीटर की यात्रा हम सबने लगभग ढाई घंटे में तय करते हुए हमने होटल पहुंच कर बहुत सुकून का अनुभव किया। हमारी यात्रा का उद्देश्य पूरा हो चुका था इस बात की तसल्ली हो रही थी। 

मेरे भाई और मेरा मन यही रुक कर एक दो दिन बिताने का हो रहा था पर, वापस भी आना था। वापसी में पहला पड़ाव हमने ऋषिकेश का तय किया और निकल पड़े। वापसी की यात्रा जाने की तुलना में काफी आसान थी और शाम होते होते हम ऋषिकेश परमार्थ आश्रम में पहुंच गए।

परमार्थ आश्रम भारत के टॉप योग केंद्रों में से एक है और इस क्षेत्र का सबसे बड़ा  आश्रम है जो पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित है. अपने अस्तित्व के 70 वर्षों में यह अब ऋषिकेश के सबसे बड़े आश्रम में से एक है. इसकी स्थापना 1942 में स्वामी शुकदेवानंद सरस्वती ने की थी. यह आश्रम सभी के लिए खुला है, जिसमें जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, धर्म, जाति या पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है. आश्रम के घाट हवन और गंगा आरती के लिए प्रसिद्ध है जो प्रतिदिन सुबह और शाम को होती है. आश्रम एक स्कूल भी चलाता है, जो पारंपरिक और सांस्कृतिक भारतीय पैटर्न का पालन करता है।

अगले दिन सुबह आश्रम से सटे गंगा घाट के किनारे स्नान करने पहुंच गए। स्नान के पहले गंगा घाट पर बैठ गंगा के बहते अविरल धारा को निहारना एक अलौकिक और अध्यात्मिक अनुभूति प्रदान करती है। 



स्नान के बाद हम सब ने आश्रम में होने वाले हवन में हिस्सा लिया।

अब आश्रम से विदा लेने का वक्त आ गया था, सुबह के नाश्ते के बाद हम दिल्ली के लिय निकल पड़े हो हमारी यात्रा का समापन पड़ाव था। लगभग शाम के चार बजे मेरे भाई शिशु के निवास स्थान पर पहुंच कर यात्रा सम्पूर्ण हुई।

यह पूरी यात्रा संस्मरण मन में वर्षो तक अमिट रहेगी। कहते हैं की माता पिता की इच्छा पूरी करने से बाद कोई तीर्थ फल नहीं होता, इस बात की संतुष्टि मेरे मन में भी है। 

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